मैं भी उस हॉल में बैठा था
जहां परदे पर इक फ़िल्म के किरदार
ज़िंदा जावेद नज़र आते थे
उनकी हर बात बड़ी, सोच बड़ी, कर्म बड़े
उनका हर एक अमल
एक तस्लीम थी, सब देखने वालों के लिये
मैं अदाकार था उसमें
तुम अदाकारा थीं
अपने महबूब का जब हाथ पकड़ कर तुमने
ज़िंदगी एक नज़र में भर के
उसके सीने पर बस एक आंसू से लिख कर दे दी थी
कितने सच्चे थे वो किरदार
जो परदे पर थे
कितने फ़र्ज़ी थे वो दो, हॉल में बैठे साए
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