Tuesday, September 13, 2011

स्कूल चलें हम...

आज हिंदी दिवस है. समस्त भारत वासियों को हिंदी दिवस के मौके पर ढेरों बधाई. जब हम दिवाली, ईद को मनाते हैं तो हिंदी दिवस क्यूँ पीछे रहे भाई? हिंदी दिवस पर मैं चाह रहा हूँ के पोस्ट हिंदी में लिखूं, हमारी राष्ट्रभाषा को समर्पित करते हुए... कुछ "कूल डूड" और "हॉट बेब्स" जैसे लोगों को मैं जानता हूँ जो हिंदी देख कर नाक भौं सिकोड़ लेते हैं हिंदी देखते ही. ऐसे लोगों को मैं 'लिब्रलाइज़ेशन की पैदाइश' कहना ज्यादा बेहतर समझता हूँ. माफ़ कीजियेगा अगर कहीं पर मात्रा की गलती हो जाए तो. मुझे गर्व हैं भारतीय होने पर और हिंदी बोलने पर. फख्र होता है जब कोई मेरे हिंदी भाषा के ज्ञान पर जलता है !!

मैं आपके सामने एक बहुत ही सरल बात रखना चाहता हूँ. एक बक्सा है, जिसमें एक अनमोल चीज़ रखी हुई है, पर इस बक्से पर ताला लगा हुआ है. यह कोई आम बक्सा नहीं है. ये बक्सा है हमारा शरीर. इस बक्से के बाहर क्या है, मैं इसकी बात नहीं कर रहा हूँ. बल्कि मैं उसकी बात करना चाहता हूँ जो अन्दर रखी हुई है. यह बक्सा प्रकृति के नियमों में बंधा हुआ है. एक दिन यह बक्सा बना और एक दिन यह नहीं रहेगा. लेकिन जब तक यह बक्सा है, तब तक इसके अन्दर रखी हुई चीज़ भी उपलब्ध है. पर सवाल यह है की वोह चीज़ है क्या?

आज तक हम सब येही सोचते रहे है की इस बक्से के बाहर क्या है? पर किसी ने यह कोशिश नहीं की के जान सकें की इस बक्से के अन्दर क्या है? सब इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं की इस बक्से को कहाँ रखना चाहिए और कहाँ नहीं रखना चाहिए. के किस प्रकार इस बक्से को सजाया जाए और किस तरह इस बक्से की सुरक्षा की जाए. आज इस दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वोह इस बक्से के कारण हो रहा है. अगर यह बक्सा ना होता तोह बड़े बड़े कानून ना बनते और ना ही बड़े बड़े देश. अगर यह बक्सा ना होता तोह कोई अमीर ना होता कोई गरीब ना होता. पर है तोह सही एक बक्सा. और यह एक ऐसा बक्सा है जिस पर ताला लगा हुआ है. इस वजह से लोग इसके बारे में सिर्फ और सिर्फ अंदाजा लगाते हैं. वे सिर्फ और सिर्फ अपना जीवन ये सोचने में बीता देते हैं की 'इस बक्से के भीतर आखिर होगा क्या? ... पर कोई कोशिश नहीं करता इस ताले को खोलने की. कोई सोच के समुन्दर में डूबकी लगा कर यहाँ तक सोच लेता है के शायद इस बक्से के भीतर कोई हीरा जवाहरात होगा. कोई खजाना होगा. और कोई आलसी किस्म का यह सोच लेता है के इसके अन्दर 'कुछ नहीं है'.

और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने असफल ही सही, पर एक कोशिश तोह की इसे खोलने की. उन लोगों ने इस बक्से के सामने हाथ जोड़े. मालाएं पहनाई इस बक्से को. प्रार्थनाएं की इस बक्से के सामने. कुछ तो ऐसे भी हैं जो चाबियों के बड़े बड़े गुच्छे लाकर बोलते हैं 'इनमें से एक ना एक चाबी तो उस ताले को खोल ही देगी'. ऐसे लोगों से मुझे कोई तकलीफ नहीं. चलो और कुछ नहीं तो एक कोशिश तोह की इन्होने. और कुछ लोग होते हैं, जिन्होंने अपने आज तक के जीवन कभी ना कभी, किसी ना किसी मोड़ पर 'शून्य' का आभास किया है. वे ऐसे लोग हैं जो चिन्तन मनन करते हैं. जिनकी सोच बहुत दूर तलक जाती है इस बक्से के सन्दर्भ में. और उन्होंने इसका सही जवाब ढूँढा है की यह ताला है 'अज्ञानता' का, ऐसा वे सोचते हैं. मैं उनकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ.

हमारे देश में हाल ही में श्री अन्ना हजारे जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहीम छेड़ रखी है. हर साल सरकार अपने बजट में प्रावधान करती है गरीबी से लड़ने के. लोगों को साफ़ सुथरी ज़िन्दगी मुहैय्या हो इसके सन्दर्भ में. देश के पिछड़े वर्ग को अच्छी नौकरी मिले इसके सन्दर्भ में. वगैरह वगैरह... पर क्या किसी ने कभी ये सोचा के इतना सब करने के बावजूद हमारा देश आज ६४ सालों बाद भी रेंगने को ही क्यूँ मजबूर है? वे गोरे क्या वाकई पहली दुनिया में रहते हैं? क्या वे हमसे ज्यादा समझदार हैं? क्या वे हमसे ज्यादा दुनिया को समझते हैं? जवाब है - नहीं. फर्क सिर्फ इतना है की वे शिक्षित हैं और हम अशिक्षित.

मेरा एक नीजी तौर पर मानना है की इस देश की सभी समस्याओं का हल पढाई में छिपा है
. आप कोई भी समस्या कहें मैं उसे देश के अशिक्षित होने से जोड़ कर दिखा सकता हूँ. मेरा मानना है की इस देश में सब कुछ है. पर इसे समझने वालों की एक जमात चाहिए. अगर एक व्यक्ति शिक्षित है और चीज़ों को समझने की शक्ति है उसमें, जो की पढने से ही अर्जित की जा सकती है, तो वोह इस देश की कायापलट में एक अहम भूमिका निभा सकता है.

मिसाल के तौर पर, एक शिक्षित व्यक्ति कभी भी रिश्वत नहीं देगा. इसे हम सम्पूर्णता में देखते हैं. मान लीजिये इस देश का हर व्यक्ति शिक्षित है. फिर वोह चाहे किसान ही क्यूँ ना हो. वोह इंसान कभी भी सरकारी कार्यालय में रिश्वत नहीं देगा. आज की तारीख में सरकारी अधिकारी ये सोचता है की उसका वेतन कम है, महंगाई अपने परम चरम पर है और सरकारी पगार से उसका घर नहीं चल सकता और उसका मानना होता है की अगर किसी से १०० रुपये ले लिए तो क्या बुरा हुआ, उसका काम भी हो गया और अधिकारी को कुछ आर्थिक सहायता भी हो गयी. अब इसकी विपरीत परिस्थिति देखते हैं जहां देश का हर व्यक्ति शिक्षित है. वोह कभी भी ना तो रिश्वत देगा और ना ही लेगा. क्यूंकि वोह जानता है आज नहीं तोह कल ये पैसा देश के काल धन में शामिल हो जाए और कहीं ना कहीं जा कर इसकी चोट उसे भी लगेगी.

एक और मिसाल लेते हैं. हमारे देश में सभी जानते हैं के १२५ करोड़ की आबादी में से सिर्फ २% लोग ही कर अदा करते हैं. और ये केवल वे २% लोग हैं जो नौकरी पेशा हैं. उनके पास अब कोई चारा नहीं है इन्कम टैक्स से बचने का. बाकी बचे हमारे देश के धंधे से जुड़े लोग. उनका मानना है के जब बाकी टैक्स नहीं भरते तो वे क्यूँ भरे. और इसका दूसरा कारण टैक्स रेट का काफी बाधा हुआ होना है. इंसान सोचता है के अगर वोह टैक्स ही भर देगा तो खायेगा क्या? अब स्थिति को पलट कर देखिये. अगर हमारे देश का हर व्यक्ति इमानदारी से टैक्स भरे तो? टैक्स रेट जो फिलहाल ३०% है, वोह गिर कर २% तक आ सकती है, अगर हर व्यक्ति टैक्स भरे तोह. आज हमें लगता है ना की हम टैक्स क्यूँ भरे हमारी कमाई पर. और मेरा खुद का मानना है की कोई भी इंसान नहीं चाहेगा की उसके मुश्किलों से कमाए हुए पैसों पर कोई कर लगे. पर हमें यह भी सोचना चाहिए के हम एक देश के नागरिक हैं. ये देश ही हमारा घर है. हम सरकार को गाली देने से बाज़ नहीं आते अगर कहीं पर एक गड्ढा मिल जाए तोह. पर क्या कभी ये सोचते हैं की हम कौन सा इमानदारी बरतते हैं. अगर हम ही आनाकानी करेंगे तोह ये देश कैसे चलेगा. हम क्या अपने घरों में सिर्फ अपने अपने कमरों की ही देखभाल करते हैं? नहीं. तोह हमें भी अपनी सोच विकसित करने की ज़रूरत है.

एक और वाक्या मेरे जेहन में आ रहा है इस वक़्त. मैं जहां रहता हूँ उसके ठीक सामने जुलाई के महीने में महानगर पालिका वालों ने रोड की मरम्मत का काम किया था. और केवल इक महीने की बरसात में ही इस सड़क का ये हाल है की मानो कभी बनी ही नहीं थी. लोग आते जाते महानगर पालिका को गाली देते हैं. पर क्या कभी किसी के मन में ये ख़याल आया के वो जाकर उस अधिकारी को जवाब तलब करे जिसके निर्देशन के तहत इस सड़क का काम हुआ था? नहीं. अगर सरकार हरामखोर है, तोह कहीं ना कहीं हम भी कमीने हैं. और ये इसलिए है की हमें ये नहीं पता के हमारे अधिकार क्या है? और हमारी देश के प्रति जिम्मेदारी क्या है? अब कौन इस चिलचिलाती धुप में पालिका के चक्कर काटे भैय्या! यहाँ ज़रुरत आती है शिक्षा की. ज़रुरत है शिक्षित होने की, समाझ को शिक्षित करने की, और बदलाव लाने की. और ये तभी हो सकता है जब पढ़े लिखे लोग कुछ कोशिश करें. आप और मैं कुछ कोशिश करें.

आओ प्रात्मिक शिक्षा को सबका हक बनाएं हम. पढ़ा लिखा होना और शिक्षित होने में ज़मीन आसमान का फर्क है. हमें ज़रूरत है शिक्षित समाज की ना की पढ़े लिखे समाज की. हम पढ़ लिख कर दर्द को भांप तो सकते हैं. पर अगर श्क्षित नहीं हुए तो उसे बांट नहीं सकते.

चलिए वैसे भी कोई मेरे पोस्ट पढता तो है नहीं, और जो एक आध पढ़ते हैं वो अब मुझे गाली देंगे की इतना लम्बा चौड़ा लिखा दिया. आशा करता हूँ की जो मैं कहना चाहता था वोह मैं कह गया. शायद अब पढने वालों को यह समझ गया होगा की मैं ऊपर 'बक्से' पर इतनी बकचोदी क्यूँ कर रहा था !! सभी को बहुत सारा प्यार.

2 comments:

  1. :) accha likha hai. imandari se likha hai.

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  2. आपका बहुत बहुत धन्यवाद . :)

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