Wednesday, September 21, 2011

फिल्म रिव्यू - 'बोल'





'बोल' के लिए सिर्फ इतना ही कहूँगा के बहुत कम ऐसी फिल्में होती हैं जो व्यक्ति को अन्दर तक झख्झोर के रख देती हैं. तारीफ़ करनी होगी शोएब मंसूर की जिन्होंने 'खुदा के लिए' के बाद फिर से एक बहुत ही ज़हीन फिल्म का निर्देशन किया है. शोएब मंसूर की एक खासियत यह है वे बुनियादी तौर पर चीज़ों को देखते हैं. इसकी एक साफ़ छाप 'खुदा के लिए' में भी नज़र आई थी और 'बोल' में भी नज़र आती है. वे उन प्रोग्रेसिव फिल्मकारों में से हैं जो चीज़ों को सटीक ढंग से परख कर उसपर फिल्म की कहानी गढ़ते हैं.

'बोल' की भी यही खासियत है. इसकी नक्काशे सी गढ़ी हुई कहानी. बहुत कम ऐसे लोग देखने में आते हैं जो किन्नरों जैसे विषय को छूने की हिम्मत रखते हैं. शोएब मंसूर ने अपनी दोनों ही फिल्मों में एशिया की दकियानुसियत पर एक करार व्यंग्य किया है. एक धुंधली तस्वीर दिखाई है दुनिया को. यहाँ मैं ज़िक्र करना चाहता हूँ की शोएब मूलतः पाकिस्तानी हैं और ऊपर मैंने लिखा है 'एशिया'. एशिया लिखने से मेरा मतलब था के आज भी हिंदुस्तान, नेपाल, भूटान जैसे देशों में बेटों की चाह पुर्जोरता पर है. आज भी यहाँ का एक तबका है जो सोचता है के ज्यादा बच्चे पैदा करने से भविष्य सुधरेगा. वे यह नहीं सोचते की भविष्य जब सुधरेगा तब सुधरेगा, पर वर्त्तमान में तोह उन्हें पालना पड़ेगा. ज्यादा हाथ की चाह रखने वालों को यह समझ नहीं आता के जब तक वे हाथ कमाने लायक नहीं हो जाते तब तक तोह उनके मुंह भी हैं, उसे भी भरना होगा. और किस तरह लड़कियों को आज भी 'शिक्षित' समाज होने की बावजूद एक देनदारी समझा जाता है. ये लोग यह नहीं सोचते कि सायंस ने यह साबित कर दिया है के इंसान के शुन्क्राणुओं से इस बात का ताल्लुक है के वो लड़का पैदा करेगा या लड़की और न ही ये अल्लाह या इश्वर निर्धारित करता है. यह भी बहुत ही मार्मिक ढंग से दिखाया गया है के किस तरह आज भी ओछी सोच हमारे दिल-ओ-दिमाग पर हावी है. हम कहने को तो मौल में घुमते हैं, मल्टीप्लेक्स में पिक्चरें देखते हैं...पर सोच से हम कितने गरीब हैं.


कहानी फिल्म कि बड़ी है. पर कहीं भी ऐसा लगता के फिल्म उबाऊ हो रही हो. हर दृश्य अपने आप में कहानी को बाँध कर रखता है. और शोएब मंसूर ने जितने भी कलाकार ढूंढें हैं, सभी अपना अपना काम पूरी तन्मयता से करते हैं. मुझे चंकाने वाली चीज़ लगी जब इंटरवल हुआ. मुझे लगा के फिल्म ख़त्म हो गयी है. पर स्क्रीन पर इंटरवल हुआ तो मैं चौंक पड़ा. क्यूँ कि जितनी भी फिल्म हुई थी मुझे लगा के स्टोरी में आगे डेवलप्मेंट कि शायद गुंजाइश न हो. और घडी कि तरफ मैंने देखा तो एहसास हुआ के अभी तोह सिर्फ ७५ मिनट बीते हैं. तारीफ़ करनी होगी लगभग आधी से ज्यादा फिल्म शोएब ने इंटरवल के पहले पहल ७५ मिनट में खिंच दी है जिसमें "किन्नर भाई" का किस्सा शामिल है. फिर जब इंटरवल के बाद दोबारा शुरू हुई तो बस अंत तक बाहरी दुनिया से संपर्क कटवा दिया. इतनी सादगी से इतने बोझल कर देने वाले विषय को उठाना और उसे अंत तक खींचना और साथ ही साथ यह भी ध्यान देना के फिल्म कहीं स्टीरियोटाइप्स में उलझ के ना रह जाए, अपने आप में एक जीत है निर्देशक कि. इस तरह कि फिल्मों का एक अलग ही दर्शक वर्ग होता है और मैं चाहता हूँ के वे दर्शक यह फिल्म ज़रूर देखें क्यूँ कि यह फिल्म दिल से बनायी गयी है. और इसकी कोई कहानी नहीं है, बल्कि एक सच्चाई का तमाचा है सभी के मुंह पर के इस पढ़े लिखे समाज में भी कुछ ऐसे तत्व आज भी मौजूद हैं.

फिल्म कि कहानी शुरुवात के दृश्य से ही बयान हो जाती है. लहौर कि रहने वाली एक लड़की [जुनैब] पर उसके अपने पिता को मार डालने का आरोप है. उस लड़की ने आज तक किसी भी अदालत में अपना कोई बयान नहीं दिया. अंत में उसका मामला पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म के पास पहुँचता है. यह समझ कर के शायद उसने आजतक कुछ नहीं कहा अपने बचाव में इसलिए वो वाकई में आरोपी है, आज़म उसके मौत के तलाफ्नामे पर दस्तखत कर देते हैं. पर उसने आखिर में एक अपील कि है के फांसी कि तख्ते पर कड़ी हो कर वो मीडिया को अपनी कहानी सुनाना चाहती है. इस पर वे अपनी रजामंदी दे देते हैं. मीडिया का जमावड़ा लहौर जेल को घेर लेता है और जेलर ४ बजे तक का समय निर्धारित करता है. उस वक़्त के अन्दर तक जुनैब को अपनी कहानी कहनी है. और यहीं से जुनैब अपनी कहानी कहना शुरू करती है. यहीं से अंकुर फूट-ते हैं 'बोल' के. इसके आगे क्या होता है यह जान-ने के लिए आपको सिनेमा हॉल तक जाने का कष्ट करना hoga !!

फिल्म कि भाषा और शैली काफी हद तक 'खुदा के लिए' से मिलती जुलती है. पर कुछ हिस्सों में फिल्म में उतना असर नहीं दीखता है जितना के 'खुदा के लिए' में था. कहानी बहुत मज़बूत है पर कहावट में कहीं कहीं और काम कि ज़रुरत थी. कुछ दृश्य ऐसे भी हैं शायद जिनकी ज़रुरत नहीं थी. पर जब आप एक फिल्म को सम्पूर्णता में देखते हैं तोह ऐसी छोटी मोटी चीज़ें दरकिनार कर दी जा सकती है. "हुमैमा मलिक", मंज़र सहबाई, अम्र कशिमिरी, इमान अली और आतिफ असलम कि तारीफ़ करनी होगी जिनके दमदार अभिनय ने इस फिल्म को नयी उंचाई दी है. आप खुद ही सोचिये कि पांच-पांच अंतर-राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म में कुछ तोह ऐसा होगा ही जो देखने वाले के माथे पर सलवट का गहना पहना दे. उसे सोचने पर मजबूर कर दे कि ज़िन्दगी कब तक एक ही ढर्रे पर ढोयेंगे. अब वक़्त बदलाव का है. समझ नहीं आता के इस तरह कि फिल्में और क्यूँ नहीं बनती. अगर आप दबंग, सिंघम, रेडी माय नामे इज खान और बॉडीगार्ड जैसी मसाला फिल्मों पर रुपये खर्च करते हैं तो कृपया ऐसी फिल्मों पर भी ध्यान दीजिये. बहुत ही सुन्दर फिल्म बनायी है शोएब मंसूर ने. अंत ज़रा सा नाटकीय लग सकता है पर फिर भी एक बार फिर तहे दिल से उनकी तारीफ़ कीजिये. आप निराश नहीं होंगे.

रेटिंग - ३*/५*

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